गांधीजी के साथ जो होना था वह 30 जनवरी, 1948 की शाम को ही हो चुका है. इसलिए हमें गांधीजी की चिंता करने की ज़रूरत नहीं है.
हमें अपने लिए गांधीजी की चिंता करने की ज़रूरत है और हमें उनकी विरासत में दिलचस्पी लेनी चाहिए.
गांधीजी ने हम लोगों के सामने कुछ आदर्श विचार रखे थे. सार्वजनिक जीवन के लिए भी उन्होंने हमें ख़राब लोगों के लिए ख़राब होना नहीं सिखाया बल्कि ख़राब लोगों के प्रति ईमानदार होना सिखाया था.
सार्वजनिक जीवन में किसी नेता, किसी राजनीतिक दल या फिर किसी संस्थान के प्रति हम पूरी तरह समर्पण कर दें यह हमारा लक्ष्य, आदर्श या उपलब्धि नहीं होनी चाहिए.
गांधीजी के आदर्शों को मानना काफ़ी मुश्किल है, लेकिन इसलिए तो वे आदर्श हैं, नहीं? गांधीजी ख़ुद अपने आदर्शों को सौ प्रतिशत नहीं अपना सकते थे.
संभवत: यही वजह है कि गांधीजी जीवन भर ख़ुद को बेहतर बनाते रहे. वे हमेशा उच्च स्तर को हासिल करने की कोशिश करते रहे. अगर हमने ख़ुद को किसी राजनीतिक या फिर धार्मिक नेता की सेवा में समर्पित कर दिया तो हम केवल नाम के लिए स्वतंत्र रह जाते हैं.
ऐसी स्थिति में हमारा दिमाग़ और हमारी सोच प्रक्रिया दोनों स्वतंत्र नहीं रह पाती है. हमारा दिमाग़ और हमारे विचार किसी और से संचालित होने लगते हैं.
गांधीजी कभी नहीं चाहते थे कि लोग इस तरह से समर्पण करें. उनके अपने प्रिय रिश्तेदार, उनके नज़दीकी दोस्त और उनके अनुयायियों, सबने उनसे कई बार असहमतियां जताईं. गांधीजी के आदर्श किसी भरी हुई टोकरी की तरह नहीं हैं, जहां या तो पूरी टोकरी लेने या नहीं लेने का ही विकल्प हो.
अगर आप गांधीजी को संपूर्णता से समझना चाहते हैं हमें ब्रह्मचर्य पर उनके विचार को समझना चाहिए. हमें उसे अपनाने की ज़रूरत नहीं है.